OBC आरक्षण, सामाजिक न्याय और राजनीतिक संतुलन से जुड़ा बड़ा सवाल, जाति जनगणना के पीछे की जमीनी सच्चाई क्या है?
पंकज श्रीवास्तव/नई दिल्ली।
भारत में जाति जनगणना को लेकर बहस फिर से तेज़ हो गई है। 1931 के बाद यह पहली बार है जब जातियों की गिनती और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को लेकर राजनीतिक दल और सामाजिक संगठनों के बीच चर्चा गरमा गई है। सवाल उठ रहे हैं, क्या इससे समाज को न्याय मिलेगा या नया बंटवारा शुरू होगा?
जाति जनगणना क्या है?
भारत में हर 10 साल में जनगणना होती है, लेकिन 1931 के बाद से जातियों की गिनती बंद कर दी गई। वर्तमान में केवल अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की संख्या दर्ज की जाती है। OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) और अन्य जातियों का कोई आधिकारिक आंकड़ा सरकार के पास नहीं है।
जाति जनगणना का मकसद
हर नागरिक की जाति का रिकॉर्ड तैयार करना और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन करना।
किसे होगा फायदा?
- OBC समुदाय को:
OBC वर्ग का आरक्षण आबादी के अनुमान पर आधारित है, न कि सटीक डाटा पर।
जाति जनगणना से उन्हें जनसंख्या के अनुपात में अधिकार मिलने की मांग को मजबूती मिल सकती है। - नीति निर्माताओं को:
जातियों की शिक्षा, आय, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़ी स्थिति का मूल्यांकन नीतियों को ज़मीनी बनाएगा। - हाशिये पर मौजूद जातियों को:
कई छोटी जातियां आज भी सरकारी योजनाओं से वंचित हैं। जनगणना से उन्हें पहचान और हक़ मिल सकता है।
किसे हो सकता है नुकसान?
- राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जातियां:
यदि उनकी जनसंख्या कम पाई जाती है, तो आरक्षण और सत्ता में उनकी हिस्सेदारी पर असर पड़ सकता है। - सामान्य वर्ग (General Category):
जातिगत आरक्षण के दायरे में विस्तार से सामान्य वर्ग के कुछ हिस्सों में असंतोष बढ़ सकता है। - सामाजिक एकता पर असर:
डाटा सामने आने से जातियों के बीच तुलना और टकराव की संभावना बढ़ सकती है।
विशेषज्ञों के अनुसार, इससे सामाजिक ध्रुवीकरण भी हो सकता है।
राजनीतिक समीकरण भी जुड़ा है
जाति जनगणना केवल सामाजिक न्याय का विषय नहीं, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। कई विपक्षी दल इसकी मांग कर रहे हैं जबकि कुछ दल इसे समाज में विभाजन का कारण मानते हैं।
बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपने स्तर पर जाति सर्वे शुरू कर दिए हैं। अब निगाहें केंद्र सरकार पर हैं जो इस पर अभी भी स्पष्ट रुख नहीं दिखा रही।
जाति जनगणना से समाज के हाशिये पर मौजूद वर्गों को न्याय मिल सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जब इसका इस्तेमाल केवल नीति निर्माण के लिए हो, न कि राजनीतिक लाभ के लिए। अब देखना ये है कि क्या केंद्र सरकार इस मांग को मानती है या फिर यह बहस यूं ही राजनीति के गलियारों में घूमती रहेगी।