जिसे आप सबसे ज़्यादा चाहते हैं… वो ही आपका सबसे बड़ा दुश्मन है!
आपका फोन… वो चीज़ जो सुबह आंख खुलने से पहले आपके हाथ में होती है… और रात को आंख बंद होने के बाद भी पास ही पड़ी रहती है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है — जो चीज़ आपकी सबसे बड़ी जरूरत बन गई है, वही कहीं आपकी सबसे बड़ी दुश्मन तो नहीं?”
अक्सर हम सोचते हैं कि स्मार्टफोन का असर सिर्फ मेंटल हेल्थ तक सीमित है — नींद खराब, ध्यान भंग, और एंग्ज़ायटी।
लेकिन कहानी इससे कहीं आगे जाती है… और कहीं ज्यादा गहरी है।हर अलर्ट, हर नोटिफिकेशन, हर ‘बज़’… आपका ध्यान चुरा रहा है।
धीरे-धीरे, आप वो नहीं देख पा रहे जो आपके आसपास सच में हो रहा है — न रिश्तों में गहराई बची है, न बातचीत में संवेदना।
फोन ने ‘लाइव मोमेंट’ को ‘रिकॉर्ड मोमेंट’ में बदल दिया है — हम जीने से ज़्यादा शेयर करने में लगे हैं।

प्रोडक्टिविटी? वो भी इसकी शिकार है।
आप 5 मिनट के लिए फोन उठाते हैं और 50 मिनट यूं ही निकल जाते हैं — स्क्रॉलिंग, स्वाइपिंग, क्लिकिंग… और फिर खुद को कोसना।काम अधूरा, दिमाग बिखरा हुआ, और समय गुमनाम।
सबसे दुखद असर पड़ता है रिश्तों पर।जो बातें आंखों में कहनी थीं, वो अब ‘टाइपिंग…’ में बदल गईं।जो लम्हे साथ में जीने थे, वो अब इंस्टाग्राम स्टोरी में ‘फ्लैश’ होकर गायब हो जाते हैं।
और सबसे खतरनाक बात? ये आदत नहीं, अब लत बन चुकी है।इतनी गहरी कि अगर एक घंटे भी फोन न मिले, तो बेचैनी बढ़ जाती है।डिजिटल डिटॉक्स अब एक ट्रेंड नहीं, ज़रूरत बन चुका है।